Tuesday 10 March 2015

सपनों की उड़ान !! ( story )

                                                    

भगवiन तुम्हे सफल करें।"   माँ के मुँह से निकले इन शब्दों ने एक पल के लिए हिला डाला। ऐसा लगा मानो युद्ध के मैदान में लड़ाई के लिए कोई योद्धा निकल पड़ा हो। हाँ ,शायद मेरी हालत भी युद्ध के योद्धा की भाँति ही थी।  माँ- बाबा से जिद्द करके बड़ी मुश्किल से उनकी स्वीकृति ली थी। एक आत्मविश्वास था और एक बड़ा हौसला।  बिहार के एक छोटे से शहर चम्पारन से दिल्ली जाने का , बचपन से एक सपना था - IIT में एडमिशन लेने का ,एक विश्वास कि - हाँ ! कुछ करना है। इस विश्वास ने कब जूनून का रूप ले लिया इसका मुझे खुद  भी पता नहीं चला।  बस माँ-बाबा से दिन रात इस बात की जिद मुझे दिल्ली जाकर अच्छी कोचिंग में एडमिशन लेना है , IIT करना है । 
"कैसे हो पायेगा बेटा ? तुझे तो पता है कि  बाबा की तनख्वाह में  बहुत मुश्किल से घर का खर्च चल पता है।  और फिर छोटे भाई विभू को भी तो देखना है ना "  ! लेकिन माँ के ये सारे तर्क मुझे बेहद मामूली लगने लगते।  
"माँ !! विभू तो अभी बहुत छोटा है , और माँ बस कुछ सालों की ही तो बात है , पता है माँ एक बार मेरा IIT में एडमिशन हो गया ना तो बस हमारे सारे दुःख दूर हो जाएंगे।  और फिर पता है ! बाबा को नौकरी करने की भी जरूरत नहीं  है , और तुम  जो सारा दिन साड़ियों में फॉल लगाकर रूपये जोड़ती हो इसकी भी जरूरत नहीं रहेगी।  और विभू ! देखना तुम उसका एडमिशन तो मैं नामी स्कूल में कराऊंगा।  बस फिर मैं अपने सपनों  में उड़ पड़ता और अपने संग माँ-बाबा को भी सुनहरे भविष्य के सपनो में घूमाने लगता। 
माँ बैचैन हो उठती और बाबा ढेर सारे सवालों में घिर जाते - कैसे होगा ? अगर नहीं हो पाया तो
क़र्ज़ लेना पड़ेगा , तो उसका ब्याज कितना होगा
दसवीं कक्षा में अच्छे नम्बरों से पास होने पर जो छात्रवृति मिली थी , उसे पूरी तरह संभाल  कर रखा था ताकि आगे जरूरत के समय उसका इस्तेमाल कर सकूँ।  मन तो बहुत था की उससे कुछ नए कपड़े खरीदूं , और विभू के लिए एक सायकिल, जो रोज़ शाम को गली में खड़े होकर दूसरे बच्चों को सायकिल चलते देखा करता और घर आकर माँ-बाबा से सायकिल के लिए जिद किया करता।  और माँ  किसी तरह से उसे बहला फुसला  कर सुला दिया करती। 
इधर मेरे माँ और बाबा की बातचीत को विभू बड़े ही ध्यान से सुना करता और आश्चर्य भरी निगाहों से मुझे कुछ इस तरह से देखा करता जैसे मैं कुछ बहुत ही बड़ा करने जा रहा हूँ।  ऐसे ही अचानक एक दिन वो दौड़ता हुआ मेरे पास आया और बोला - भइया जब आपकी नौकरी लग जाएगी तो आप मेरे लिए सायकिल  ले पाओगे ? और मैंने बड़े प्यार से उसे गोद  में बिठाते हुए बोला - अरे विभू तेरे लिए तो मैं लाल रंग की चमचमाती हुई ऐसी सायकिल लाऊंगा जो फुर्र  से  इन सब साइकिलों  को पीछे छोड़ती हुई आगे निकल जाएगी।  विभू का चेहरा ख़ुशी  से खिल उठा , वो बोल उठा - तो भइया जाओ ना तुम। 
मैंने अपने साथ ना जाने कितने लोगों की आँखों में सपने जगा दिए थे।  मुझे नहीं पता था की मैं सही था या गलत , पर हाँ इतना जरूर पता था कि जो था उससे मैं संतुष्ट नहीं था , माँ का पाई-पाई के लिए हिसाब करना , बाबा का थोड़े से पैसे बचाने के लिए पैदल ऑफिस जाना  , मुझे मंजूर नहीं था।  
बारहवीं कक्षा में आते ही मैंने दिल्ली के एक नामी कोचिंग में एडमिशन की प्रवेश परीक्षा दे डाली और मुझे अपने अनुमान से ज्यादा करीब 75 % स्कॉलरशिप देते हुए एडमिशन का कॉल-लेटर आ गया।  मेरी , माँ-बाबा की ख़ुशी की सीमा नहीं थी।  इस रिजल्ट से उन्हें ये लगने लग गया की हाँ शायद मैं कुछ कर सकता हूँ।  बारहवीं की परीक्षा उत्त्रीण करने के बाद एक साल दिल्ली मैं रहकर अपने ड्रीम -कॉलेज की तैयारी करनी थी।  दिल और जान लगा कर बारहवीं की परीक्षा 93%से पास की और पूरे  जिले में अव्वल रहा।  अब तो बस रुख करना था दिल्ली का।  दिल्ली जो अब तक सिर्फ T.V. पर ही देखी थी।  कैसे होगा ? क्या होगा ? तमाम प्रश्नों ने मुझे थोड़ा सा परेशान और शिथिल सा कर डाला।  आखिर फैसला मेरा था तो भुगतना भी तो मुझे ही था। चिंतित सिर्फ मैं ही नहीं था , माँ- बाबा के चेहरे पर चिंता की लकीरें स्पस्ट रूप से पढ़ीं जा सकती थी , और उनको ढाढ़स मुझे ही बंधानी थी - अरे बाबा वो शर्मा साहब है न नुक्कड़ वाले ,उनका बेटा बंटी भी तो दिल्ली से कोचिंग कर रहा है , और बस बाबा दौड़ पड़े शर्मा साहब के यहाँ। 
शर्मा साहब ! बेटा पहली बार अकेले जा रहा है , दिल्ली में किसी को जानता नहीं है , बंटी  अगर कुछ मदद कर देगा तो बड़ी मेहरबानी होगी।  बाबा का शर्मा साहब के सामने ऐसे गिड़गिड़ाना मुझे एकदम अच्छा नहीं लगा।  मैं बोल पड़ा - बाबा आप चिंता न करें , मैंने सब पता कर लिया है ,सब ठीक हो जायेगा , और बाबा को जबरदस्ती घर खींच कर ले आया।  
और आज माँ का "भगवान तुम्हे सफल करें " का आशीर्वाद लेकर मैं अपने गंतव्य की और निकल पड़ा। 
दिल्ली - देश की राजधानी !! महानगरी !! उफ्फ , सोचकर ही कुछ होने लगा।  न जाने कैसे लोग होंगे ? ट्रैन में बैठे बैठे दिल्ली पहुँचने तक दिल में न जाने कैसे कैसे ख्याल आने लगे।  दिल्ली स्टेशन पर उतर कर बाहर आया तो सामने मेट्रो स्टेशन पर नज़र गयी पहले कभी मेट्रो से सफर नहीं किया था  तो सोचा अभी ऑटो कर लेते हैं , मेट्रो की हिम्मत फिर कभी करेंगे।  ऑटो और टैक्सी वालों ने जैसे हमें घेर ही लिया - कहाँ जाना है भइया ? अरे उधर प्रीपैड मत जाइयेगा , डबल चार्ज लगेगा।  फिलहाल ले देकर किसी तरह ऑटो किया और पहुँच गए कोचिंग के पते की पर्ची पकड़े - पकड़े --- कालू सराय। 
ऐसा लगा जैसे पूरे  देश के बच्चे यहीं पढ़ने आ गए हों , चारों तरफ भीड़ और ढेरों कोचिंग सेंटर , और सभी रोड की साइड  में स्टाल लगा लगा कर  अपनी और बुला रहे थे।  उन सबसे बचते बचाते किसी तरह मैं अपने कोचिंग सेंटर पहुंचा , एडमिशन लेने में करीब करीब तीन-चार घंटे लग गए।  फीस जमा करने के लिए एक लम्बी क़तार लगी हुई थी , पर्स  से जब बाबा का हस्ताक्षर किया हुआ चेक निकला तो मन ना  जाने कैसा अजीब सा होने लगा , लगा जैसे बाबा की मेहनत से जुटाई हुई रकम कहीं बर्बाद न हो जाए। 
मन को कड़ा करके अपने आत्मविश्वास को झकझोर के फीस जमा कर डाली।  दिल्ली में  बीच शहर में कमरा लेकर पढ़ाई  करना आपने सामर्थ्य से बाहर होता प्रतीत होने लगा , अतः दो चार दोस्तों के साथ मिलकर नॉएडा से दूर कम दाम पर एक कमरा किराये  पर ले लिया गया।  थोड़ी समय की बर्बादी थी पर उसका मूल्य बचाये जाने वाले पैसों के मूल्य से कहीं कम था।  फिलहाल एक दिनचर्या शुरू हो गयी , कमरे से मेट्रो स्टेशन पैदल चलकर जाना फिर मेट्रो से उतर कर पैदल कोचिंग तक भागते हुए जाना , भागना इसलिए कि हमारी कक्षा  करीब सौ डेढ़ सौ बच्चे थे , मेरी कोशिश होती थी की मुझे अग्रिम पंक्तियों  में बैठने की सीट मिल जाए , क्योंकि पीछे की  पंक्तियों  में उन बच्चों का  समूह बैठा करता था जिन्हें पड़ने लिखने में कुछ जयादा दिलचस्पी नहीं हुआ करती थी और उनका पूरा समय अंग्रेज़ी गानों और फिल्मों की चर्चा में  व्यतीत होता था। 
एक अजीब सी दौड़ शुरू हो चुकी थी , दिन जैसे भागे जा रहे थे , आये दिन होने वाले टेस्टों ने तो जैसे थका ही डाला था। किसी टेस्ट में ख़राब नंबर आने पर लगता था जैसे माँ-बाबा की सांस ही रुक गयी हो , और मैं खुद अपने आपको अपराधी  सा महसूस करने लगता , आत्मग्लानि मुझे ज्यादा मेहनत करने पर मजबूर कर देती।  बरहाल मेरी ये हमेशा कोशिश रहती कि मैं प्रथम पांच बच्चों में हमेशा एक बना रहूँ चाहे उसके लिए मुझे कितनी भी मेहनत करनी पड़े।  जल्दी ही मैं अपने शिक्षकों का प्रिय छात्र बन बैठा , इसका कारण उनके दिल में मेरे प्रति उपजी सहानुभूति थी या मेरा अटूट परिश्रम , कारण जो भी रहा होपर वे मेरे सभी शंकाओं को दूर करने में सदैव तत्पर रहते। धीरे धीरे परीक्षा के दिन नज़दीक आने लगे। IIT की प्रवेश परीक्षा में फेर बदल कर दिया गया था।  परीक्षा दो चरणों में होनी थी - मेंस  और एडवांस।  प्रथम चरण की परीक्षा की तारीख भी घोषित कर दी गयी थी , परीक्षा अप्रैल को होनी थी पढ़ने  वाले बच्चों के जोश में और वृद्धि हो गयी थी , और वे बच्चे जिनका मकसद कक्षा में टाइम पास करना था उनके चेहरों पर कोई शिकन नहीं थी वह पहले की तरह मस्त और चिंतामुक्त थे।  मेरी प्रथम चरण की परीक्षा का सेंटर , इंडिया गेट के पास , गुरु नानक स्कूल में पड़ा था।  सभी दोस्तों के सेंटर अलग अलग स्कूलों में पड़े थे , परीक्षा के करीब तीन चार दिन पहले मैं अपने एक दोस्त के साथ जाकर सेंटर देख आया था।  अपने कमरे से सेंटर तक पहुँचने में अच्छा खासा डेढ़ से दो घंटा लगना  लगभग तय था।  परीक्षा सुबह साढ़े नौ बजे से शुरू होनी थी , अतः परीक्षा के दिन मैं सुबह पांच पजे से उठ कर जाने की तैयारी में लग गया।  मेहनत  जो होनी थी वो हो चुकी थी , अब समय था उस साल भर की मेहनत  को प्रमाणित करने का।   समय का पर्याप्त ध्यान रखते हुए मैं कमरे से करीब सात बजे ही निकल पड़ा , सेंटर भी दूर था और मेट्रो में भी करीब घंटा भर लगना था , ऐसा मेरे साथ पहले कभी नहीं हुआ था , मेट्रो थोड़ी दूर चल कर रुक गयी। साथ के यात्री बोलने लगे - "न जाने क्या हुआ है दो दिन से मेट्रो रुक रुक के जा रही है ,आधा घंटा लेट  पहुंचा रही है।  मैंने मन ही मन सोचा - चलो अच्छा हुआ मैं जल्दी निकल गया , सोचा उतारते ही ऑटो पकड़ लूँगा।  मेट्रो से उतरते ही मैंने तुरंत ऑटो का रुख किया , तीन -चार  ऑटो वालों से बात करने के बाद कहीं मन मुताबिक किराये वाला ऑटो मिल पाया , और देखते ही देखते ऑटो हवा से बातें करने लगा , आखिरकार ऑटो वाले को बोलना पड़ा- "भइया थोड़ा धीरे चलाइए " ऑटोवाला भी मेरी घबड़ाहट भांप गया - " अरे भैया चिंता ना  करो सही सलामत पहुंचा देंगे। 
बड़े बड़े सिग्नल  और चौड़ी-चौड़ी रोड , जगह -जगह पर पुलिस वाले खड़े थे , इतनी पुलिस क्यों है ? ऑटोवाले से पूछ ही लिया।  अरे भैया वी.आई. पी. एरिया है ! कोई मंत्री संत्री  जा रहे होंगे।  उसका कहना ठीक था , अगले ही सिग्नल पर पुलिस वाले ने हमें दूसरे रास्ते  जाने का निर्देश दिया।  ऑटो वाले ने हमें चेताया - भैया इस रास्ते से बहुत लम्बा पड़ेगा , भाड़ा ज्यादा लगेगा। उस रास्ते पर मुड़ते ही लगा की जैसे दिल्ली की सारी गाड़ियाँ , ऑटो ,मोटर साइकिल इसी रास्ते पर आ गयी हों।  ट्रैफिक पूरी तरह से ठप्प।  घड़ी में देखा नौ बज रहे थे।  "भइया साढ़े नौ तक पहुँच जायेंगे ना ? दिल अचानक जोरो से धड़कने लगा। 
क्या कह सकते हैं ? ट्रैफिक चले तो दस मिनिट में , पर ट्रैफिक चले तब ना ! धीरे धीरे ट्रैफिक सरकने लगा पर चींटी की चाल से।  इससे तेज़ तो मैं पैदल ही निकल जाऊँगा ये सोच जैसे तैसे ऑटो वाले को पैसे दे मैं निकल पड़ा।  रास्ता भी नया था पूछते पाछते मैं तेज़ी से चलने लगा।  
अरे भइया आप गलत आ गए हैं ! आपको इसके बगल वाली रोड लेनी थी ,घड़ी  में  देखा साढ़े नौ बज चुके थे , मैं बेतहाशा दौड़ने लगा , लगने लगा की कहीं ऐसा न हो की मैं देर से पहुंचूं और और मुझे अंदर ना जाने दिया जाए।  दूर से मुझे स्कूल का गेट दिखा , बहार अभिभावकों की भीड़ लगी थी , सभी बच्चे अंदर जा चुके थे।  गेट बंद हो चुका था। मैंने गेट से अपना  एडमिट कार्ड निकल कर सिक्योरिटी वाले को बुलाया। उसने मुझे घूरते हुए बोला - गेट बंद हो चुका है , आप लेट हैं।  
क्या !!! अरे भइया प्लीज ! देखिये रास्ते में जाम था , उसने एक गन्दा सा मुँह बनके मेरी तरफ देखा और चल दिया ! मैं रो पड़ा , चिल्ला कर बोला - भइया प्लीज !! मेरे पास खड़े दूसरे अभिभावकों ने मेरी मदद करने की कोशिश की , बाहर शोर सुनकर अंदर से एक कार्यकर्ता  आया , उसने बोला  - देखिये आप  पंद्रह मिनिट लेट हैं , गेट बंद हो जाने के बाद किसी भी विद्यार्थी को अंदर जाने की अनुमति नहीं है , अतः आप  अंदर नहीं जा सकते। 
अचानक मुझे ऐसा लगा की जैसे मेरी दुनिया लुट चुकी थी।   मुझे उस बात की सजा दी जा रही थी जो गलती मैंने की ही नहीं , मेरे पूरे साल की मेहनत बेकार हो गयी थी।  इतना हारा  हुआ मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया। तब से आज तक कुछ एक प्रश्न मेरे ज़ेहन में लगातार घूमते  रहे  हैं जिन्हे आज  मैं IIT कमेटी से पूछना चाहता हूँ - लेट पहुँचने पर नुकसान  किसका था ? मेरा ना ! पेपर छूटता तो मेरा छूटता , नुकसान  होता तो मेरा होता ! हो सकता है की मैं उस पंद्रह मिनिट की भरपाई कर लेता , हो सकता है मुझे एडमिशन मिल जाता।  क्या  उस पंद्रह मिनिट के लिए  मेरे पूरे भविष्य को अन्धकार में रखने का हक़  है आपको ?
मेरे जैसे कई बच्चे होंगे जिनको इस तरह से दस मिनिट -पंद्रह मिनिट लेट आने की , ये सजा दी जाए क्या ये सही है ? प्लीज सोचिए ! कुछ करिये , ताकि मेरी तरह और बच्चों का भविष्य खराब ना  हो। 
दोस्तों मेरी कहानी का अंत यहीं नहीं हुआ , हाँ IIT में तो मुझे एडमिशन नहीं मिल पाया पर दिल्ली एनसीआर  में एक अच्छे कॉलेज से मैंने अच्छे नम्बरों से मैंने इंजीनियरिंग पास की जिसके चलते मुझे एक अच्छी कंपनी में नौकरी भी मिल गयी।  और हाँ  मैंने विभू को उसकी लाल वाली सायकिल भी दिला दी जिसपर  वो अपने दोस्तों को बैठाकर  बड़े गर्व से चलाया करता है। 

5 comments:

  1. Well wrought. Touching and Engrossing.

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  2. 👌👌👌Ek rochak kahani likhne per anek badhai.👃👃👃Akhir tak suspense banae rakhne me aap safal hui. Likhti rahiye.Shubhkamnae.

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  3. 👌👌👌Ek rochak kahani likhne per anek badhai.👃👃👃Akhir tak suspense banae rakhne me aap safal hui. Likhti rahiye.Shubhkamnae.

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  4. Interesting and ad well one can easily relate to incidences of own life, few lines took me back to my those days of similar nature.
    Great work but last para ....I prefer to reserve my comments till....commendable efforts

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