tag:blogger.com,1999:blog-43836299061356999802024-03-13T19:22:35.667-07:00AntermanAnonymoushttp://www.blogger.com/profile/17931553086969434606noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-4383629906135699980.post-47169622758147326392015-03-10T04:15:00.001-07:002015-03-10T04:15:42.266-07:00सपनों की उड़ान !! ( story )<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span class="s1"><b><i> </i></b></span><br />
<div class="p2">
<span class="s2"><b><i></i></b></span><br /></div>
<div class="p3">
<span class="s2">भगवiन तुम्हे सफल करें।</span><span class="s4">" </span><span class="s2">माँ के मुँह से निकले इन शब्दों ने एक पल के लिए हिला डाला। ऐसा लगा मानो युद्ध के मैदान में लड़ाई के लिए कोई योद्धा निकल पड़ा हो। हाँ </span><span class="s4">,</span><span class="s2">शायद मेरी हालत भी युद्ध के योद्धा की भाँति ही थी। माँ</span><span class="s4">- </span><span class="s2">बाबा से जिद्द करके बड़ी मुश्किल से उनकी स्वीकृति ली थी। एक आत्मविश्वास था और एक बड़ा हौसला। बिहार के एक छोटे से शहर चम्पारन से दिल्ली जाने का </span><span class="s4">, </span><span class="s2">बचपन से एक सपना था </span><span class="s4">- IIT </span><span class="s2">में एडमिशन लेने का </span><span class="s4">,</span><span class="s2">एक विश्वास कि </span><span class="s4">- </span><span class="s2">हाँ </span><span class="s4">! </span><span class="s2">कुछ करना है। इस विश्वास ने कब जूनून का रूप ले लिया इसका मुझे खुद भी पता नहीं चला। बस माँ</span><span class="s4">-</span><span class="s2">बाबा से दिन रात इस बात की जिद मुझे दिल्ली जाकर अच्छी कोचिंग में एडमिशन लेना है </span><span class="s4">, IIT </span><span class="s2">करना है । </span></div>
<div class="p3">
<span class="s4">"</span><span class="s2">कैसे हो पायेगा बेटा </span><span class="s4">? </span><span class="s2">तुझे तो पता है कि बाबा की तनख्वाह में बहुत मुश्किल से घर का खर्च चल पता है। और फिर छोटे भाई विभू को भी तो देखना है ना </span><span class="s4">" ! </span><span class="s2">लेकिन माँ के ये सारे तर्क मुझे बेहद मामूली लगने लगते। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s4">"</span><span class="s2">माँ </span><span class="s4">!! </span><span class="s2">विभू तो अभी बहुत छोटा है </span><span class="s4">, </span><span class="s2">और माँ बस कुछ सालों की ही तो बात है </span><span class="s4">, </span><span class="s2">पता है माँ एक बार मेरा </span><span class="s4">IIT </span><span class="s2">में एडमिशन हो गया ना तो बस हमारे सारे दुःख दूर हो जाएंगे। और फिर पता है </span><span class="s4">! </span><span class="s2">बाबा को नौकरी करने की भी जरूरत नहीं है </span><span class="s4">, </span><span class="s2">और तुम जो सारा दिन साड़ियों में फॉल लगाकर रूपये जोड़ती हो इसकी भी जरूरत नहीं रहेगी। और विभू </span><span class="s4">! </span><span class="s2">देखना तुम उसका एडमिशन तो मैं नामी स्कूल में कराऊंगा। बस फिर मैं अपने सपनों में उड़ पड़ता और अपने संग माँ</span><span class="s4">-</span><span class="s2">बाबा को भी सुनहरे भविष्य के सपनो में घूमाने लगता। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">माँ बैचैन हो उठती और बाबा ढेर सारे सवालों में घिर जाते </span><span class="s4">- </span><span class="s2">कैसे होगा </span><span class="s4">? </span><span class="s2">अगर नहीं हो पाया तो </span><span class="s4">? </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">क़र्ज़ लेना पड़ेगा </span><span class="s4">, </span><span class="s2">तो उसका ब्याज कितना होगा </span><span class="s4">? </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">दसवीं कक्षा में अच्छे नम्बरों से पास होने पर जो छात्रवृति मिली थी </span><span class="s4">, </span><span class="s2">उसे पूरी तरह संभाल कर रखा था ताकि आगे जरूरत के समय उसका इस्तेमाल कर सकूँ। मन तो बहुत था की उससे कुछ नए कपड़े खरीदूं </span><span class="s4">, </span><span class="s2">और विभू के लिए एक सायकिल</span><span class="s4">, </span><span class="s2">जो रोज़ शाम को गली में खड़े होकर दूसरे बच्चों को सायकिल चलते देखा करता और घर आकर माँ</span><span class="s4">-</span><span class="s2">बाबा से सायकिल के लिए जिद किया करता। और माँ किसी तरह से उसे बहला फुसला कर सुला दिया करती। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">इधर मेरे माँ और बाबा की बातचीत को विभू बड़े ही ध्यान से सुना करता और आश्चर्य भरी निगाहों से मुझे कुछ इस तरह से देखा करता जैसे मैं कुछ बहुत ही बड़ा करने जा रहा हूँ। ऐसे ही अचानक एक दिन वो दौड़ता हुआ मेरे पास आया और बोला </span><span class="s4">- </span><span class="s2">भइया जब आपकी नौकरी लग जाएगी तो आप मेरे लिए सायकिल ले पाओगे </span><span class="s4">? </span><span class="s2">और मैंने बड़े प्यार से उसे गोद में बिठाते हुए बोला </span><span class="s4">- </span><span class="s2">अरे विभू तेरे लिए तो मैं लाल रंग की चमचमाती हुई ऐसी सायकिल लाऊंगा जो फुर्र से इन सब साइकिलों को पीछे छोड़ती हुई आगे निकल जाएगी। विभू का चेहरा ख़ुशी से खिल उठा </span><span class="s4">, </span><span class="s2">वो बोल उठा </span><span class="s4">- </span><span class="s2">तो भइया जाओ ना तुम। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">मैंने अपने साथ ना जाने कितने लोगों की आँखों में सपने जगा दिए थे। मुझे नहीं पता था की मैं सही था या गलत </span><span class="s4">, </span><span class="s2">पर हाँ इतना जरूर पता था कि जो था उससे मैं संतुष्ट नहीं था </span><span class="s4">, </span><span class="s2">माँ का पाई</span><span class="s4">-</span><span class="s2">पाई के लिए हिसाब करना </span><span class="s4">, </span><span class="s2">बाबा का थोड़े से पैसे बचाने के लिए पैदल ऑफिस जाना </span><span class="s4">, </span><span class="s2">मुझे मंजूर नहीं था। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">बारहवीं कक्षा में आते ही मैंने दिल्ली के एक नामी कोचिंग में एडमिशन की प्रवेश परीक्षा दे डाली और मुझे अपने अनुमान से ज्यादा करीब </span><span class="s4">75 % </span><span class="s2">स्कॉलरशिप देते हुए एडमिशन का कॉल</span><span class="s4">-</span><span class="s2">लेटर आ गया। मेरी </span><span class="s4">, </span><span class="s2">माँ</span><span class="s4">-</span><span class="s2">बाबा की ख़ुशी की सीमा नहीं थी। इस रिजल्ट से उन्हें ये लगने लग गया की हाँ शायद मैं कुछ कर सकता हूँ। बारहवीं की परीक्षा उत्त्रीण करने के बाद एक साल दिल्ली मैं रहकर अपने ड्रीम </span><span class="s4">-</span><span class="s2">कॉलेज की तैयारी करनी थी। दिल और जान लगा कर बारहवीं की परीक्षा </span><span class="s4">93%</span><span class="s2">से पास की और पूरे जिले में अव्वल रहा। अब तो बस रुख करना था दिल्ली का। दिल्ली जो अब तक सिर्फ </span><span class="s4">T.V. </span><span class="s2">पर ही देखी थी। कैसे होगा </span><span class="s4">? </span><span class="s2">क्या होगा </span><span class="s4">? </span><span class="s2">तमाम प्रश्नों ने मुझे थोड़ा सा परेशान और शिथिल सा कर डाला। आखिर फैसला मेरा था तो भुगतना भी तो मुझे ही था। चिंतित सिर्फ मैं ही नहीं था </span><span class="s4">, </span><span class="s2">माँ</span><span class="s4">- </span><span class="s2">बाबा के चेहरे पर चिंता की लकीरें स्पस्ट रूप से पढ़ीं जा सकती थी </span><span class="s4">, </span><span class="s2">और उनको ढाढ़स मुझे ही बंधानी थी </span><span class="s4">- </span><span class="s2">अरे बाबा </span><span class="s4">! </span><span class="s2">वो शर्मा साहब है न नुक्कड़ वाले </span><span class="s4">,</span><span class="s2">उनका बेटा बंटी भी तो दिल्ली से कोचिंग कर रहा है </span><span class="s4">, </span><span class="s2">और बस बाबा दौड़ पड़े शर्मा साहब के यहाँ। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">शर्मा साहब </span><span class="s4">! </span><span class="s2">बेटा पहली बार अकेले जा रहा है </span><span class="s4">, </span><span class="s2">दिल्ली में किसी को जानता नहीं है </span><span class="s4">, </span><span class="s2">बंटी अगर कुछ मदद कर देगा तो बड़ी मेहरबानी होगी। बाबा का शर्मा साहब के सामने ऐसे गिड़गिड़ाना मुझे एकदम अच्छा नहीं लगा। मैं बोल पड़ा </span><span class="s4">- </span><span class="s2">बाबा आप चिंता न करें </span><span class="s4">, </span><span class="s2">मैंने सब पता कर लिया है </span><span class="s4">,</span><span class="s2">सब ठीक हो जायेगा </span><span class="s4">, </span><span class="s2">और बाबा को जबरदस्ती घर खींच कर ले आया। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">और आज माँ का </span><span class="s4">"</span><span class="s2">भगवान तुम्हे सफल करें </span><span class="s4">" </span><span class="s2">का आशीर्वाद लेकर मैं अपने गंतव्य की और निकल पड़ा। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">दिल्ली </span><span class="s4">- </span><span class="s2">देश की राजधानी </span><span class="s4">!! </span><span class="s2">महानगरी </span><span class="s4">!! </span><span class="s2">उफ्फ </span><span class="s4">, </span><span class="s2">सोचकर ही कुछ होने लगा। न जाने कैसे लोग होंगे </span><span class="s4">? </span><span class="s2">ट्रैन में बैठे बैठे दिल्ली पहुँचने तक दिल में न जाने कैसे कैसे ख्याल आने लगे। दिल्ली स्टेशन पर उतर कर बाहर आया तो सामने मेट्रो स्टेशन पर नज़र गयी </span><span class="s4">, </span><span class="s2">पहले कभी मेट्रो से सफर नहीं किया था तो सोचा अभी ऑटो कर लेते हैं </span><span class="s4">, </span><span class="s2">मेट्रो की हिम्मत फिर कभी करेंगे। ऑटो और टैक्सी वालों ने जैसे हमें घेर ही लिया </span><span class="s4">- </span><span class="s2">कहाँ जाना है भइया </span><span class="s4">? </span><span class="s2">अरे उधर प्रीपैड मत जाइयेगा </span><span class="s4">, </span><span class="s2">डबल चार्ज लगेगा। फिलहाल ले देकर किसी तरह ऑटो किया और पहुँच गए कोचिंग के पते की पर्ची पकड़े </span><span class="s4">- </span><span class="s2">पकड़े </span><span class="s4">--- </span><span class="s2">कालू सराय। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">ऐसा लगा जैसे पूरे देश के बच्चे यहीं पढ़ने आ गए हों </span><span class="s4">, </span><span class="s2">चारों तरफ भीड़ और ढेरों कोचिंग सेंटर </span><span class="s4">, </span><span class="s2">और सभी रोड की साइड में स्टाल लगा लगा कर अपनी और बुला रहे थे। उन सबसे बचते बचाते किसी तरह मैं अपने कोचिंग सेंटर पहुंचा </span><span class="s4">, </span><span class="s2">एडमिशन लेने में करीब करीब तीन</span><span class="s4">-</span><span class="s2">चार घंटे लग गए। फीस जमा करने के लिए एक लम्बी क़तार लगी हुई थी </span><span class="s4">, </span><span class="s2">पर्स से जब बाबा का हस्ताक्षर किया हुआ चेक निकला तो मन ना जाने कैसा अजीब सा होने लगा </span><span class="s4">, </span><span class="s2">लगा जैसे बाबा की मेहनत से जुटाई हुई रकम कहीं बर्बाद न हो जाए। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">मन को कड़ा करके अपने आत्मविश्वास को झकझोर के फीस जमा कर डाली। दिल्ली में बीच शहर में कमरा लेकर पढ़ाई करना आपने सामर्थ्य से बाहर होता प्रतीत होने लगा </span><span class="s4">, </span><span class="s2">अतः दो चार दोस्तों के साथ मिलकर नॉएडा से दूर कम दाम पर एक कमरा किराये पर ले लिया गया। थोड़ी समय की बर्बादी थी पर उसका मूल्य बचाये जाने वाले पैसों के मूल्य से कहीं कम था। फिलहाल एक दिनचर्या शुरू हो गयी </span><span class="s4">, </span><span class="s2">कमरे से मेट्रो स्टेशन पैदल चलकर जाना फिर मेट्रो से उतर कर पैदल कोचिंग तक भागते हुए जाना </span><span class="s4">, </span><span class="s2">भागना इसलिए कि हमारी कक्षा करीब सौ डेढ़ सौ बच्चे थे </span><span class="s4">, </span><span class="s2">मेरी कोशिश होती थी की मुझे अग्रिम पंक्तियों में बैठने की सीट मिल जाए </span><span class="s4">, </span><span class="s2">क्योंकि पीछे की पंक्तियों में उन बच्चों का समूह बैठा करता था जिन्हें पड़ने लिखने में कुछ जयादा दिलचस्पी नहीं हुआ करती थी और उनका पूरा समय अंग्रेज़ी गानों और फिल्मों की चर्चा में व्यतीत होता था। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">एक अजीब सी दौड़ शुरू हो चुकी थी </span><span class="s4">, </span><span class="s2">दिन जैसे भागे जा रहे थे </span><span class="s4">, </span><span class="s2">आये दिन होने वाले टेस्टों ने तो जैसे थका ही डाला था। किसी टेस्ट में ख़राब नंबर आने पर लगता था जैसे माँ</span><span class="s4">-</span><span class="s2">बाबा की सांस ही रुक गयी हो </span><span class="s4">, </span><span class="s2">और मैं खुद अपने आपको अपराधी सा महसूस करने लगता </span><span class="s4">, </span><span class="s2">आत्मग्लानि मुझे ज्यादा मेहनत करने पर मजबूर कर देती। बरहाल मेरी ये हमेशा कोशिश रहती कि मैं प्रथम पांच बच्चों में हमेशा एक बना रहूँ चाहे उसके लिए मुझे कितनी भी मेहनत करनी पड़े। जल्दी ही मैं अपने शिक्षकों का प्रिय छात्र बन बैठा </span><span class="s4">, </span><span class="s2">इसका कारण उनके दिल में मेरे प्रति उपजी सहानुभूति थी या मेरा अटूट परिश्रम </span><span class="s4">, </span><span class="s2">कारण जो भी रहा हो</span><span class="s4">, </span><span class="s2">पर वे मेरे सभी शंकाओं को दूर करने में सदैव तत्पर रहते। धीरे धीरे परीक्षा के दिन नज़दीक आने लगे। </span><span class="s4">IIT </span><span class="s2">की प्रवेश परीक्षा में फेर बदल कर दिया गया था। परीक्षा दो चरणों में होनी थी </span><span class="s4">- </span><span class="s2">मेंस और एडवांस। प्रथम चरण की परीक्षा की तारीख भी घोषित कर दी गयी थी </span><span class="s4">, </span><span class="s2">परीक्षा </span><span class="s4">7 </span><span class="s2">अप्रैल को होनी थी पढ़ने वाले बच्चों के जोश में और वृद्धि हो गयी थी </span><span class="s4">, </span><span class="s2">और वे बच्चे जिनका मकसद कक्षा में टाइम पास करना था उनके चेहरों पर कोई शिकन नहीं थी वह पहले की तरह मस्त और चिंतामुक्त थे। मेरी प्रथम चरण की परीक्षा का सेंटर </span><span class="s4">, </span><span class="s2">इंडिया गेट के पास </span><span class="s4">, </span><span class="s2">गुरु नानक स्कूल में पड़ा था। सभी दोस्तों के सेंटर अलग अलग स्कूलों में पड़े थे </span><span class="s4">, </span><span class="s2">परीक्षा के करीब तीन चार दिन पहले मैं अपने एक दोस्त के साथ जाकर सेंटर देख आया था। अपने कमरे से सेंटर तक पहुँचने में अच्छा खासा डेढ़ से दो घंटा लगना लगभग तय था। परीक्षा सुबह साढ़े नौ बजे से शुरू होनी थी </span><span class="s4">, </span><span class="s2">अतः परीक्षा के दिन मैं सुबह पांच पजे से उठ कर जाने की तैयारी में लग गया। मेहनत जो होनी थी वो हो चुकी थी </span><span class="s4">, </span><span class="s2">अब समय था उस साल भर की मेहनत को प्रमाणित करने का। समय का पर्याप्त ध्यान रखते हुए मैं कमरे से करीब सात बजे ही निकल पड़ा </span><span class="s4">, </span><span class="s2">सेंटर भी दूर था और मेट्रो में भी करीब घंटा भर लगना था </span><span class="s4">, </span><span class="s2">ऐसा मेरे साथ पहले कभी नहीं हुआ था </span><span class="s4">, </span><span class="s2">मेट्रो थोड़ी दूर चल कर रुक गयी। साथ के यात्री बोलने लगे </span><span class="s4">- "</span><span class="s2">न जाने क्या हुआ है दो दिन से मेट्रो रुक रुक के जा रही है </span><span class="s4">,</span><span class="s2">आधा घंटा लेट पहुंचा रही है। मैंने मन ही मन सोचा </span><span class="s4">- </span><span class="s2">चलो अच्छा हुआ मैं जल्दी निकल गया </span><span class="s4">, </span><span class="s2">सोचा उतारते ही ऑटो पकड़ लूँगा। मेट्रो से उतरते ही मैंने तुरंत ऑटो का रुख किया </span><span class="s4">, </span><span class="s2">तीन </span><span class="s4">-</span><span class="s2">चार ऑटो वालों से बात करने के बाद कहीं मन मुताबिक किराये वाला ऑटो मिल पाया </span><span class="s4">, </span><span class="s2">और देखते ही देखते ऑटो हवा से बातें करने लगा </span><span class="s4">, </span><span class="s2">आखिरकार ऑटो वाले को बोलना पड़ा</span><span class="s4">- "</span><span class="s2">भइया थोड़ा धीरे चलाइए </span><span class="s4">" </span><span class="s2">ऑटोवाला भी मेरी घबड़ाहट भांप गया </span><span class="s4">- " </span><span class="s2">अरे भैया चिंता ना करो सही सलामत पहुंचा देंगे। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">बड़े बड़े सिग्नल और चौड़ी</span><span class="s4">-</span><span class="s2">चौड़ी रोड </span><span class="s4">, </span><span class="s2">जगह </span><span class="s4">-</span><span class="s2">जगह पर पुलिस वाले खड़े थे </span><span class="s4">, </span><span class="s2">इतनी पुलिस क्यों है </span><span class="s4">? </span><span class="s2">ऑटोवाले से पूछ ही लिया। अरे भैया वी</span><span class="s4">.</span><span class="s2">आई</span><span class="s4">. </span><span class="s2">पी</span><span class="s4">. </span><span class="s2">एरिया है </span><span class="s4">! </span><span class="s2">कोई मंत्री संत्री जा रहे होंगे। उसका कहना ठीक था </span><span class="s4">, </span><span class="s2">अगले ही सिग्नल पर पुलिस वाले ने हमें दूसरे रास्ते जाने का निर्देश दिया। ऑटो वाले ने हमें चेताया </span><span class="s4">- </span><span class="s2">भैया इस रास्ते से बहुत लम्बा पड़ेगा </span><span class="s4">, </span><span class="s2">भाड़ा ज्यादा लगेगा। उस रास्ते पर मुड़ते ही लगा की जैसे दिल्ली की सारी गाड़ियाँ </span><span class="s4">, </span><span class="s2">ऑटो </span><span class="s4">,</span><span class="s2">मोटर साइकिल इसी रास्ते पर आ गयी हों। ट्रैफिक पूरी तरह से ठप्प। घड़ी में देखा नौ बज रहे थे। </span><span class="s4">"</span><span class="s2">भइया साढ़े नौ तक पहुँच जायेंगे ना </span><span class="s4">? </span><span class="s2">दिल अचानक जोरो से धड़कने लगा। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">क्या कह सकते हैं </span><span class="s4">? </span><span class="s2">ट्रैफिक चले तो दस मिनिट में </span><span class="s4">, </span><span class="s2">पर ट्रैफिक चले तब ना </span><span class="s4">! </span><span class="s2">धीरे धीरे ट्रैफिक सरकने लगा पर चींटी की चाल से। इससे तेज़ तो मैं पैदल ही निकल जाऊँगा ये सोच जैसे तैसे ऑटो वाले को पैसे दे मैं निकल पड़ा। रास्ता भी नया था पूछते पाछते मैं तेज़ी से चलने लगा। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">अरे भइया आप गलत आ गए हैं </span><span class="s4">! </span><span class="s2">आपको इसके बगल वाली रोड लेनी थी </span><span class="s4">,</span><span class="s2">घड़ी में देखा साढ़े नौ बज चुके थे </span><span class="s4">, </span><span class="s2">मैं बेतहाशा दौड़ने लगा </span><span class="s4">, </span><span class="s2">लगने लगा की कहीं ऐसा न हो की मैं देर से पहुंचूं और और मुझे अंदर ना जाने दिया जाए। दूर से मुझे स्कूल का गेट दिखा </span><span class="s4">, </span><span class="s2">बहार अभिभावकों की भीड़ लगी थी </span><span class="s4">, </span><span class="s2">सभी बच्चे अंदर जा चुके थे। गेट बंद हो चुका था। मैंने गेट से अपना एडमिट कार्ड निकल कर सिक्योरिटी वाले को बुलाया। उसने मुझे घूरते हुए बोला </span><span class="s4">- </span><span class="s2">गेट बंद हो चुका है </span><span class="s4">, </span><span class="s2">आप लेट हैं। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">क्या </span><span class="s4">!!! </span><span class="s2">अरे भइया प्लीज </span><span class="s4">! </span><span class="s2">देखिये रास्ते में जाम था </span><span class="s4">, </span><span class="s2">उसने एक गन्दा सा मुँह बनके मेरी तरफ देखा और चल दिया </span><span class="s4">! </span><span class="s2">मैं रो पड़ा </span><span class="s4">, </span><span class="s2">चिल्ला कर बोला </span><span class="s4">- </span><span class="s2">भइया प्लीज </span><span class="s4">!! </span><span class="s2">मेरे पास खड़े दूसरे अभिभावकों ने मेरी मदद करने की कोशिश की </span><span class="s4">, </span><span class="s2">बाहर शोर सुनकर अंदर से एक कार्यकर्ता आया </span><span class="s4">, </span><span class="s2">उसने बोला </span><span class="s4">- </span><span class="s2">देखिये आप पंद्रह मिनिट लेट हैं </span><span class="s4">, </span><span class="s2">गेट बंद हो जाने के बाद किसी भी विद्यार्थी को अंदर जाने की अनुमति नहीं है </span><span class="s4">, </span><span class="s2">अतः आप अंदर नहीं जा सकते। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">अचानक मुझे ऐसा लगा की जैसे मेरी दुनिया लुट चुकी थी। मुझे उस बात की सजा दी जा रही थी जो गलती मैंने की ही नहीं </span><span class="s4">, </span><span class="s2">मेरे पूरे साल की मेहनत बेकार हो गयी थी। इतना हारा हुआ मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया। तब से आज तक कुछ एक प्रश्न मेरे ज़ेहन में लगातार घूमते रहे हैं जिन्हे आज मैं </span><span class="s4">IIT </span><span class="s2">कमेटी से पूछना चाहता हूँ </span><span class="s4">- </span><span class="s2">लेट पहुँचने पर नुकसान किसका था </span><span class="s4">? </span><span class="s2">मेरा ना </span><span class="s4">! </span><span class="s2">पेपर छूटता तो मेरा छूटता </span><span class="s4">, </span><span class="s2">नुकसान होता तो मेरा होता </span><span class="s4">! </span><span class="s2">हो सकता है की मैं उस पंद्रह मिनिट की भरपाई कर लेता </span><span class="s4">, </span><span class="s2">हो सकता है मुझे एडमिशन मिल जाता। क्या उस पंद्रह मिनिट के लिए मेरे पूरे भविष्य को अन्धकार में रखने का हक़ है आपको </span><span class="s4">?</span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">मेरे जैसे कई बच्चे होंगे जिनको इस तरह से दस मिनिट </span><span class="s4">-</span><span class="s2">पंद्रह मिनिट लेट आने की </span><span class="s4">, </span><span class="s2">ये सजा दी जाए </span><span class="s4">? </span><span class="s2">क्या ये सही है </span><span class="s4">? </span><span class="s2">प्लीज सोचिए </span><span class="s4">! </span><span class="s2">कुछ करिये </span><span class="s4">, </span><span class="s2">ताकि मेरी तरह और बच्चों का भविष्य खराब ना हो। </span></div>
<div class="p3">
<span class="s2">दोस्तों मेरी कहानी का अंत यहीं नहीं हुआ </span><span class="s4">, </span><span class="s2">हाँ </span><span class="s4">IIT </span><span class="s2">में तो मुझे एडमिशन नहीं मिल पाया पर दिल्ली एनसीआर में एक अच्छे कॉलेज से मैंने अच्छे नम्बरों से मैंने इंजीनियरिंग पास की जिसके चलते मुझे एक अच्छी कंपनी में नौकरी भी मिल गयी। और हाँ मैंने विभू को उसकी लाल वाली सायकिल भी दिला दी जिसपर वो अपने दोस्तों को बैठाकर बड़े गर्व से चलाया करता है। </span></div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/17931553086969434606noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-4383629906135699980.post-39228383400495360352014-10-16T05:44:00.000-07:002014-10-16T05:44:20.869-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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